आंध्र प्रदेश – पार्वतीपुरम मन्यम ज़िला : जब अल्लुवाडा के पहाड़ी इलाक़े पर बारिश की बूँदें गिरती हैं, तो वहाँ के लोगों के चेहरे पर मुस्कान नहीं, बल्कि चिंता छा जाती है। बारिश का मतलब है — कटा हुआ रास्ता, बंद दुनिया। कोमराडा मंडल के इस छोटे से आदिवासी गाँव को मुख्य रावाडा–रामभद्रपुरम आर एंड बी रोड से जोड़ने वाला कोई पक्का (बीटी) रास्ता नहीं है। मिट्टी और पत्थरों का एक उबड़-खाबड़ ट्रैक ही उनका जीवनमार्ग है — जो हर बरसात में गड्ढों और पानी से भर जाता है। बाक़ी ज़िले के लिए सड़क एक सामान्य सुविधा होगी, पर अल्लुवाडा के लोगों के लिए यह जीवन और मृत्यु के बीच की दूरी है।
जब उम्मीद डोली पर सवार होती है
पिछले महीने, जब एक युवती लक्ष्मी को प्रसव पीड़ा शुरू हुई, तो उसके परिवार ने एम्बुलेंस को फ़ोन किया। पर जवाब मिला — “सड़क नहीं है, गाड़ी नहीं आ सकती।” आख़िरकार परिवारवालों ने बाँस के डंडों और चादर से एक डोली बनाई।
रात के अंधेरे में, टॉर्च की रोशनी में, चार लोगों ने उसे छह किलोमीटर तक कीचड़ भरे रास्ते से उठाकर मुख्य सड़क तक पहुँचाया।
वह अस्पताल पहुँची, लेकिन बस समय रहते।
“हर बार यही होता है,” उसके पति रामू कहते हैं। “कभी प्रसव, कभी ज़हरीला साँप, हर बार हमें लोगों को कंधे पर उठाकर ले जाना पड़ता है। और कोई रास्ता नहीं।”
वादे जो कीचड़ में दब गए
गाँववाले याद करते हैं — हर चुनाव से पहले नेता आते हैं, हाथ जोड़ते हैं, वादे करते हैं। ताज़ा वादा किया था विधायक तोयका जगदीश्वरी ने। गाँववालों का कहना है, उन्होंने चुनाव से पहले सड़क बनवाने का भरोसा दिया था। “वो खुद इस रास्ते पर चली थीं,” कहते हैं स्थानीय टीडीपी वरिष्ठ नेता तमैय्या। “जीतने के बाद उन्होंने पलटकर भी नहीं देखा। हमारी समस्याएँ चुनावी भाषणों में तो हैं, पर असल ज़िंदगी में नहीं।”
सड़क – इज़्ज़त की राह
अल्लुवाडा और इसके आसपास के गाँव — उलिपिरी, मर्रीवलासा — में करीब 600 आदिवासी परिवार रहते हैं। ये लोग जंगल की उपज और छोटे-मोटे खेती पर निर्भर हैं। बरसात के महीनों में बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, क्योंकि बस या ऑटो गाँव तक पहुँच ही नहीं पाते। स्वास्थ्य कर्मचारी भी महीने में मुश्किल से एक-दो बार आते हैं। “हमें कोई बड़ी चीज़ नहीं चाहिए,” कहती हैं बुज़ुर्ग सत्यम्मा,
“बस एक सड़क, ताकि हम सम्मान से जी सकें।”
कब आएगा बदलाव का पहिया
कागज़ों में इस सड़क का प्रस्ताव कई बार पास हुआ, लेकिन हकीकत में काम शुरू नहीं हुआ। अधिकारी बजट, वन-अनुमति और प्रशासनिक देरी का हवाला देते हैं। पर अल्लुवाडा के लोगों के लिए हर देरी एक जानलेवा इंतज़ार है। शाम ढलती है, पहाड़ियों के पीछे सूरज छिपता है। कुछ ग्रामीण टूटी पुलिया के पास खड़े हैं, जहाँ एक ट्रैक्टर कीचड़ में धँस गया है। कोई धीरे से कहता है — “काश, हमारे गाँव तक सड़क होती।”
एक छोटी-सी चाहत —
एक ऐसी सड़क जो हमें दुनिया से जोड़े, और उम्मीद से मिलाए।










